स्पीति की ठंडी वादियों में, 4,270 मीटर की ऊंचाई पर बसा है चिचम—375 लोगों का एक जीवंत और आत्मनिर्भर गांव। यह गांव स्पीति की उत्तर-पूर्वी सीमा पर स्थित है और पहले यह अपने ही पड़ोसी गांव किब्बर से कटा हुआ था। इन दोनों गांवों के बीच एक गहरी खाई (गॉर्ज) थी, जो किसी भी तरह की सड़क या संपर्क को असंभव बना देती थी।
2017 में बना ‘चिचम ब्रिज’—जो अब एशिया का सबसे ऊँचा सस्पेंशन ब्रिज माना जाता है—ने इस दुर्गमता को तोड़ा। अब यह पुल न केवल एक बुनियादी सुविधा है, बल्कि खुद एक पर्यटक आकर्षण बन गया है। इस पुल ने चिचम के जीवन को बदला है—अब होमस्टे, गाइडिंग और स्थानीय संस्कृति को दिखाने के नए अवसर खुल गए हैं।
यहीं से शुरू होती है टकपा तजिन की कहानी।
टकपा तजिन जैसे लोग, जो कभी पूरी घाटी में पैदल चलते थे, अब इन पुलों के सहारे अपने और गांव के लोगों के सपनों को और दूर तक ले जा पा रहे हैं।
"पर टकपा है कौन? टकपा कैसे टकपा बना?" ये सवाल जब आप खुद टकपा से पूछेंगे तो वो ज़ोर से हँसते हुए जवाब देंगे, “बहुत कुछ सीखते-गिरते टकपा है बना।” और यह सच भी है।
टकपा की यात्रा एक मामूली हेल्पर से शुरू हुई—55 रुपये रोज़ की मज़दूरी, सुबह 5 बजे से रात 8 बजे तक काम। वो कभी मज़दूर बने, कभी घोड़े-खच्चरों के देखभाल वाले ‘डॉंकीमैन’, कभी कुक और आखिरकार 22 बार लद्दाख तक पैदल यात्रा करने वाले पोर्टर।2000 के दशक की शुरुआत में जब स्पीति विदेशी पर्यटकों के लिए खुला, तब दिल्ली की एक ट्रैवल कंपनी के साथ पहली बार वो लद्दाख गए और वहां जाना कि “ट्रैकिंग और टूर गाइड” नाम की भी कोई दुनिया होती है। नेशनल जियोग्राफिक टीवी पर देखकर जो ख्वाब पनपे थे, उन्हें जीने का रास्ता यहीं से मिला।
आज टकपा 21 सालों से टूरिस्ट गाइड हैं, अपने गांव में एक खूबसूरत होमस्टे चलाते हैं।
पर यह सिर्फ एक बिजनेस नहीं है। उन्होंने अपने होमस्टे में गाय के गोबर से बने इको-फ्रेंडली बाथरूम बनाए हैं, पर आज तक सेप्टिक टैंक नहीं बनवाया—क्योंकि टकपा मानते हैं कि विकास को प्रकृति से जोड़कर ही आगे बढ़ाया जाना चाहिए।
मौसम के साथ बदलता टकपा का रोल
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अप्रैल से किसान बन जाते हैं—मटर, आलू, मशरूम, जौ की खेती करते हैं।
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मई-जून में टूरिस्ट आने लगते हैं—तब वो गाड़ी चलाते हैं, होमस्टे का संचालन करते हैं।
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सितंबर से नवंबर, ध्यान लाइब्रेरी पर—जहां आज 700 से ज़्यादा किताबें हैं, एक प्रोजेक्टर और जनरेटर भी लगाया गया है ताकि बच्चों को ऑनलाइन क्लासेस का मौका मिले।
नवंबर में तिब्बती कैलेंडर के त्योहार, टकपा पूरे परिवार और गांव के साथ मनाते हैं।
- दिसंबर से फरवरी, टकपा बन जाते हैं "स्नो लेपर्ड मैन"—Ecosphere के साथ मिलकर स्नो लेपर्ड टूर कराते हैं।
लाइब्रेरी: जो खुद ना पढ़ पाया, बच्चों को पढ़ते देखना चाहता है
टकपा खुद पढ़ाई नहीं कर पाए—पर आज उनकी तीन बेटियां पढ़ाई में आगे बढ़ रही हैं: एक ग्रैजुएशन फर्स्ट ईयर में, दूसरी NEET की तैयारी में, और तीसरी 10वीं कक्षा में।
"मैंने लाइब्रेरी बच्चों के लिए बनाई ताकि कोई और बच्चा पीछे न रह जाए।" वो हँसते हुए बताते हैं, "शेल्फ लगाने के बाद समझ आया कि बच्चे खेलते भी हैं—अब जगह कम हो जाती है, इसलिए शेल्फ्स को फिर से लगाना पड़ेगा।” यह बात साफ करती है कि टकपा आज भी सीखने वाला (learner) है—हर गलती में अगला सबक खोजने वाला।
टकपा हर पर्यटक को एक ही बात कहते हैं:
"यहां की यादें लेकर जाइए, और बस अपने फुटप्रिंट्स छोड़ जाइए।"
कभी बीड़ी की लत में उलझा रहा, आज उम्मीद और प्रेरणा की खुशबू से गांव को महका रहा है।
जिसने वर्तमान में जिया और कभी अपने भविष्य के बारे में नहीं सोचा—आज गांव का भविष्य गढ़ रहा है।
टकपा सिर्फ एक नाम नहीं, एक विचार है—कि अगर सीखने की ललक हो, तो रास्ते बनते जाते हैं।
एक बहुरूपी टकपा, जो हर रूप में समाज की सेवा कर रहा है—कभी किसान, कभी गाइड, कभी शिक्षक, और हमेशा एक उम्मीद।
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