Sunday, June 29, 2025

और वो चश्मा टूट गया।

एक सफेद रंग का चश्मा है। ये चश्मा काफी पुराना है, बहुत दिन देख चुका है, कई मौसम भी देखे है इसने। कभी तो कहीं की यात्रा हो रही थी कि चलते हुए पिछला चश्मा अचानक से चटक गया था। रस्ते में थे, साइकिल पर सवार थे, कुछ रफ्तार थी क्योंकि कहीं पहुंचना था। तो शाम होते एक छोटी सी जगह रुकते हैं और आप वहां एक चश्मा बनवा लेते हैं। वही सफेद रंग का। जो है तो महज दो सौ पचास रुपए का लेकिन फिर भी बड़ा कीमती नज़र आता है। कीमत उसकी भारी इस वज़ह से है क्योंकि जो यात्रा कर रहे वह बस शुरू ही हुई थी। लंबा जाना था और उस छोटी सी जगह पर इतनी बड़ी उम्मीद नहीं थी कि चश्मा बन जाएगा। अभी साफ दिखाई दे रहा चश्मे के बदौलत और इसीलिए ये इतना महंगा है।

वह यात्रा हो जाती है और फिर कुछ रोज महीने साल भी गुजर जाते हैं। चश्मे ने काफी धूप, छांव, आंधी तूफान और खून-पसीना, पानी देख लिया है अब। जो वो सफेद था थोड़ा फीका सा पड़ गया है। एक परत भी उसकी ऊपर से निकलनी सी हो गई है। पहले एक छोर की फिर दूसरे छोर की, और फिर पूरी ही। एक दिन फिर आता है कि इन शाखाओं में इक हल्की सी दरार भी पड़ जाती है। शायद कोई ज़ोर लगा हो। एक पेंच भी है जो आप कसते हैं क्योंकि अब वो भी ढीला हो चुका है। काम चल जाता है।

वो जो पेंच आपने कभी कसा था वह धीरे धीरे ढीला होता जाता है। और आप वक्त वक्त उसको कसते चलते हो। अभी होता है यूं कि दूसरी छोर का भी पेंच अब ढीला हुआ तो कसने का काम भी दोनों ही तरफ शुरु हुआ। और दरार भी गहरी होती जाती है। फिर एक दिन होता है यूं कि कुछ हड़बड़ाहट में कुछ जल्दी में हाथ यहां वहां लगता है और दरार पर जोर पड़ने से एक तरफ की शाखा पेंच समेत कोने से टूट ही जाती है।आप सरपट उसमें फेवीक्विक भरते हो। क्योंकि जगह कम है और उंगलियों और चश्मे के फ्रेम को बचाना भी है, चिपकना भी, तो इसी अफरातफरी में थोड़ा बाहर भी बह जाता है। एक पीली फुंसी की तरह चश्मे के कोने पर टीका हुआ। लेकिन चश्मा अब बड़े अच्छे से चिपक गया है, एकदम जुड़ा सा बिल्कुल भी नहीं टूटा हुआ। बस यही है कि ज्यादा फेवीक्विक से थोड़ा जकड़ गया हैं और एक भुजा उसकी अब मुड़ती नहीं है।

कुछ रोज़ फिर यूं गुजर जाते हैं। सफेद से चश्मा अब थोड़ा हल्का पीला हो चला है ज़माने भर की धूल मट्टी खाते हुए। लोग कहते है कि नया बनवा लो क्या ये घड़ी घड़ी पेंच कसना, फेवीक्विक लगाना। आप कहते हो अरे अभी तो चल रहा आराम से। जब तक चलता है चलने देते हैं फिर देखेगे कभी। और टाल देते हैं। 

अभी आज आप तीन लोग हैं, एक ही रेल के किसी एक ही डिब्बे में। कहीं एक गांव जा रहे जहां कुछ महीने हैं जो वो वहीं काटने है। बातचीत चल रही यहां वहां की क्या क्यों की और कैसे की भी। कोई ज़ोर जबरदस्ती नहीं, कोई भाग दौड़ नहीं। की कुछ तो आंख में जाता है आप चश्मा उतारते है और वह बस यूं ही टूट जाता है।

बिना कुछ कहे सुने। इस बार दाई ओर की बाजू टूटी है। बैग से दूसरा चश्मा पहन आप फेवीक्विक की ओर लपकते हैं कि जोड़ा जाए और फिर वही खेल खेला जाए। लेकिन इस बार चश्मा न जुड़ने के सूरतेहाल में टूटा है। जिसका जुड़ना अब मुनासिब नहीं है। नए चश्मे की गुंजाइश अभी नहीं है तो आप बैग से निकाला हुआ पुराना चश्मा पहन ही काम चलते हैं। टूटे हुए चश्मे के साथ कुछ 7 इक साल का सफर कट गया है। मगर सफेद चश्मे की यात्रा आपके साथ यही तक कि थी।


गांव से लौट आप वापस आए हैं। वक्त फिर कम है क्योंकि आपने अपनी बहन के घर निकलना जो एक दूसरे प्रदेश में रहती हैं। फिलहाल आप एक पुरानी दुकान में जाते है और नए चश्मे की खोजबीन शुरू करते हैं। बैजलाल जी का कहना है गांधी से बोस तक सब ही उनकी दुकान पर आए है। आपको लेकिन इस से उतना फर्क नहीं पड़ता। आप बस यही कहते की मजबूत चश्मा दिखाए क्योंकि ये वाला टूट गया। काफी दौड़ते भागते आप तो चश्मे का फिसलना बिगड़ना नाकाबिलेबरदास्त है। ये न हो कि कुछ सह न पाए और जरा सी धूल धूप में फ़नाह हो जाए। फिर जेब भी गवारा नहीं देती कि हर महीने दस दिन में हम चश्मा बदलतें फिरें। तो इस बार भूरे रंग का चश्मा लिया जाता है। 



चश्मा सफेद हो या भूरा, अगर थोड़ा गौर से देखे तो ज़ोर इसी पर की टूटे ना। कम से कम जल्दी तो न ही टूटे कुछ साल महीने मौसम तो साथ ही रहे। उधर चश्मे की भी कोशिश यही की सम्भला रहे, कानों के सहारे नज़रों पर टिका रहे। एक जिम्मेदारी, एक रिश्ता है।

कुछ यूं ही हम लोग की भी किस्से की कहानियां हैं। हम सभी सफेद हो या भूरे कोशिश यही रहती की लगाव बना रहे। साथ की अपनी अहमियत है, अपनी जरूरत हैं और इसलिए यूं ही कभी हाथ नहीं छोड़ा करते। कभी जो कहीं तकलीफ आए तो पहला खयाल, पहली कोशिश यही रहती कि कैसे बात बनाई जाए। जो बिगड़ रही है कैसे वह राह सवारी जाए। कैसे हिसाब बनाया जाए कि जो है वो बस बना रहे। हां बाज़ार में और भी हैं नए पुराने चमकीले भड़कीले। मगर जो है वो जब तक स्थिर रह पाए तब तक अच्छा ही है।

लगाव के साथ साथ एक अपनापन भी है। एक बहुत ही संतुलित सा तालमेल भी है। और है एक विश्वास भी। जैसे चश्मा यूं तो कभी भी टूट जाता उसमें क्या ही था। लेकिन फिर भी वह टूटा वहीं और तभी जब पता था कि एक दूसरा बसते में रखा हुआ। क्योंकि शायद उसको भी पता था कि जो यूं ही निकल जाए कोई जिंदगी से वो तो तकलीफ बहुत होगी। दूर की छोड़िए जी पास की भी दृष्टि धूमिल ही होगी। 

हां ये भी कह सकते कि एक ज़िद्द एक ज़बरदस्ती भी है। ठीक है लगाव, अपनापन और तालमेल। ये सभी बातें अपनी जगह बेहद जरूरी हैं। पर मगर साथ ही ये भी तो है कि साथ रहने, पकड़े रहने की कश्मकश। एक खो ना देने का एहसास की हाय उसके बाद क्या ही होगा। एक खयाल की उसके बाद कोई दूजा है ही नहीं। जैसे वह सफेद चश्मा जो पीला सा हो चला था, जिसकी पेंच भी ढीली हुई, दरारें पड़ी, फेवीक्विक चुपड़ा क्योंकि तमाम ख्वाबों में इक ख्वाब ये भी था कि यही एक सर्व शक्तिमान है। एक वही जो साथ दे रहा था इसलिए वहीं अतीत और वही वर्तमान भी। एक टीस ये भी कि हम अब भूरे चश्मे में भी वही पीला सा होता सफेद ढूंढ रहे। तमाम रंग के चश्में और भी हैं मगर उन सभी से नज़र फेर रहे। 




कुछ ने ज़रूर नए चश्मे बना लिए। कुछ मगर पुराने ही चश्मे से नई दुनिया देख रहे। क्या भला होता है यूं भी कभी की कल को पकड़े आज में जीते रहना। हां बहुत अच्छा था कल बड़ा ही दिलचस्प था वो कल लेकिन अब तो वो गुज़र के चल भी दिया। तुम कब जो नया है उसको पकड़ोगे। नज़र खराब हो या अच्छी, चश्मे तमाम रखे। क्योंकि क्या पता कब नई नजर आपकी आंखों पर पड़ जाए, और वो चश्मा टूट जाए।

(यह ब्लॉग मृगेंद्र सिंह द्वारा लिखा गया है, उस दिन की एक छोटी-सी मगर गहरी घटना से निकली कहानी।)

भूरे चश्मे का वो नन्हा-सा स्क्रू—जो एक दोस्त के घर रात के अंधेरे में निकल गया था—सुबह उठने पर ग़ायब था। वो स्क्रू इतना छोटा था कि मिलना नामुमकिन लग रहा था। लगा जैसे माइक्रोस्कोप से ढूंढना पड़ेगा। पर किस्मत से, और शायद थोड़े भरोसे से, वो मिल गया—अगर चादर का रंग थोड़ा गहरा होता तो शायद न मिलता।

ये पल, जिसमें हल्की बेचैनी, राहत, और एक चुपचाप ‘वाह’ की अनुभूति थी—ने कहानी बनने का रास्ता खुद तय कर लिया।)

Thursday, June 26, 2025

एक आदमी, कई रूप: टकपा की बहुआयामी यात्रा

स्पीति की ठंडी वादियों में, 4,270 मीटर की ऊंचाई पर बसा है चिचम—375 लोगों का एक जीवंत और आत्मनिर्भर गांव। यह गांव स्पीति की उत्तर-पूर्वी सीमा पर स्थित है और पहले यह अपने ही पड़ोसी गांव किब्बर से कटा हुआ था। इन दोनों गांवों के बीच एक गहरी खाई (गॉर्ज) थी, जो किसी भी तरह की सड़क या संपर्क को असंभव बना देती थी।

2017 में बना ‘चिचम ब्रिज’—जो अब एशिया का सबसे ऊँचा सस्पेंशन ब्रिज माना जाता है—ने इस दुर्गमता को तोड़ा। अब यह पुल न केवल एक बुनियादी सुविधा है, बल्कि खुद एक पर्यटक आकर्षण बन गया है। इस पुल ने चिचम के जीवन को बदला है—अब होमस्टे, गाइडिंग और स्थानीय संस्कृति को दिखाने के नए अवसर खुल गए हैं।

    

यहीं से शुरू होती है टकपा तजिन की कहानी।

टकपा तजिन जैसे लोग, जो कभी पूरी घाटी में पैदल चलते थे, अब इन पुलों के सहारे अपने और गांव के लोगों के सपनों को और दूर तक ले जा पा रहे हैं।

"पर टकपा है कौन? टकपा कैसे टकपा बना?" ये सवाल जब आप खुद टकपा से पूछेंगे तो वो ज़ोर से हँसते हुए जवाब देंगे, “बहुत कुछ सीखते-गिरते टकपा है बना।” और यह सच भी है।



टकपा की यात्रा एक मामूली हेल्पर से शुरू हुई—55 रुपये रोज़ की मज़दूरी, सुबह 5 बजे से रात 8 बजे तक काम। वो कभी मज़दूर बने, कभी घोड़े-खच्चरों के देखभाल वाले ‘डॉंकीमैन’, कभी कुक और आखिरकार 22 बार लद्दाख तक पैदल यात्रा करने वाले पोर्टर।

2000 के दशक की शुरुआत में जब स्पीति विदेशी पर्यटकों के लिए खुला, तब दिल्ली की एक ट्रैवल कंपनी के साथ पहली बार वो लद्दाख गए और वहां जाना कि “ट्रैकिंग और टूर गाइड” नाम की भी कोई दुनिया होती है। नेशनल जियोग्राफिक टीवी पर देखकर जो ख्वाब पनपे थे, उन्हें जीने का रास्ता यहीं से मिला।

आज टकपा 21 सालों से टूरिस्ट गाइड हैं, अपने गांव में एक खूबसूरत होमस्टे चलाते हैं।

पर यह सिर्फ एक बिजनेस नहीं है। उन्होंने अपने होमस्टे में गाय के गोबर से बने इको-फ्रेंडली बाथरूम बनाए हैं, पर आज तक सेप्टिक टैंक नहीं बनवाया—क्योंकि टकपा मानते हैं कि विकास को प्रकृति से जोड़कर ही आगे बढ़ाया जाना चाहिए।

मौसम के साथ बदलता टकपा का रोल

  • अप्रैल से किसान बन जाते हैं—मटर, आलू, मशरूम, जौ की खेती करते हैं।

  • मई-जून में टूरिस्ट आने लगते हैं—तब वो गाड़ी चलाते हैं, होमस्टे का संचालन करते हैं।

  • सितंबर से नवंबर, ध्यान लाइब्रेरी पर—जहां आज 700 से ज़्यादा किताबें हैं, एक प्रोजेक्टर और जनरेटर भी लगाया गया है ताकि बच्चों को ऑनलाइन क्लासेस का मौका मिले।

  • नवंबर में तिब्बती कैलेंडर के त्योहारटकपा पूरे परिवार और गांव के साथ मनाते हैं।

  • दिसंबर से फरवरीटकपा बन जाते हैं "स्नो लेपर्ड मैन"—Ecosphere के साथ मिलकर स्नो लेपर्ड टूर कराते हैं।

लाइब्रेरी: जो खुद ना पढ़ पाया, बच्चों को पढ़ते देखना चाहता है

टकपा खुद पढ़ाई नहीं कर पाए—पर आज उनकी तीन बेटियां पढ़ाई में आगे बढ़ रही हैं: एक ग्रैजुएशन फर्स्ट ईयर में, दूसरी NEET की तैयारी में, और तीसरी 10वीं कक्षा में।


"मैंने लाइब्रेरी बच्चों के लिए बनाई ताकि कोई और बच्चा पीछे न रह जाए।" वो हँसते हुए बताते हैं, "शेल्फ लगाने के बाद समझ आया कि बच्चे खेलते भी हैं—अब जगह कम हो जाती है, इसलिए शेल्फ्स को फिर से लगाना पड़ेगा।” यह बात साफ करती है कि टकपा आज भी सीखने वाला (learner) है—हर गलती में अगला सबक खोजने वाला।

टकपा हर पर्यटक को एक ही बात कहते हैं:
"यहां की यादें लेकर जाइए, और बस अपने फुटप्रिंट्स छोड़ जाइए।"

कभी बीड़ी की लत में उलझा रहा, आज उम्मीद और प्रेरणा की खुशबू से गांव को महका रहा है।

जिसने वर्तमान में जिया और कभी अपने भविष्य के बारे में नहीं सोचा—आज गांव का भविष्य गढ़ रहा है।

टकपा सिर्फ एक नाम नहीं, एक विचार है—कि अगर सीखने की ललक हो, तो रास्ते बनते जाते हैं।
एक बहुरूपी टकपा, जो हर रूप में समाज की सेवा कर रहा है—कभी किसान, कभी गाइड, कभी शिक्षक, और हमेशा एक उम्मीद




Pipilitara 3rd AGM and exposure visit

The AGM became a canvas for deep reflection, meaningful renewal, and collective realignment. Participants included core team members from d...