मेरे घर के सामने एक घर है।
मेरे घर के सामने एक घर है।घर जर्जर हालात में है।जिनका है वो इधर है नहीं, बाहर हैं।कुछ साल उनके रिस्तेदार रहे।लेकिन अब वो भी नहीं।वो घर पुताई लिपाई मांगता है।वे घर बेचना भी चाह रहे।बिक नहीं रहा है।उस घर के अंदर एक पेड़ उग आया। शायद कुछ चार पांच ही फ़ीट का हो गया होगा। कि वो आये जिनका घर।
तो उनसे नाराजगी हमारी दो दर्ज़े पर दर्ज़ हुई।एक तो वो, वो पेड़ काट गये।दूसरा ये कि पेड़ काट के फेक वो सड़क के कोने में ही गए।जहां फिर और लोग भी कूड़ा डालने लगे।उनका पेड़ काटना समझ आता है।घर छोड़ना, बेचना है तो देखने वाले आते ही, साफ सफाई चाहिए ही।लेकिन वो पेड़ एक हरा भरा सा था उस वीरान में।
अभी पीछे गए कुछ रोज़, हमारा विश्वास हिला।कुछ हुआ कि काफ़ी डगमगाए, हड़बड़ाए और घबराए हम।यूं तो यूं ही नहीं बिखरते हैं हम पर बिखर गए थे।
ये विश्वास हिल ही रहा था कि हम समझने की कोशिश में हैं कि क्यों इतना हिल रहा है।समझ आया भी कि हम निराश नहीं करना चाहते, होना चाहते, नाराज़ तो कोई बात नहीं।पर निराशा नहीं! खास कर जब कोई दोस्त अजीज हो और आपसे या आपकी किसी हरकत से निराश हो जाए, ये तो कतई ही गंवारा नहीं। क्योंकि दुनिया जहां भर की नज़र में आप कुछ नहीं ना सही।दोस्त की नज़र में तो बराबर खड़ा रहना चाहते।
हां जब तक ये हम समझ पाते तब तक काफी दूरी तय हो चुकी थी। विश्वास को संभालते वक्त लगना था, लगा भी।शायद पूरी तरह संभाला भी नहीं।
वो सामने वाले घर को अभी फिर देखा तो देखा कि वो पेड़ वापस आ गया, अपने आप। सिर्फ यहीं नहीं, उस घर के चारो तरफ भी काफी झाड़ आ गई। कुछ जंगली पेड़ भी घास भी।अभी कुछ दिन और अगर यूं ही रहा तो घर की बाउंड्री की दीवारों के ऊपर तक आ जानी ये झाड़, घास और पेड़।
अन्दर जो पेड़ वो भी अभी कुछ तीन एक फ़ीट का तो हो ही गया। और ये सब अपने से।बस बरसात का पानी ये हवा फ़िज़ा यहीं।घर बुरे हाल में है, भूरा सा, लेकिन ये हरियाली अपने पैरों पर ओड़े हुए है।
हमको हमारी दोस्त वीथिका की बात याद आई जो उन्होंने पिछली की पिछली सर्दी में किसी संदर्ब में कही थी।“प्रकृति की ओर रुख करो प्रकृति को देखो, कैसे सूरज चांद रोज निकल आते हैं उतने ही ऊर्जा के साथ।प्रकृति में बड़ा बल है आप भी देखिए”।
यूं तो उस घर को देख तो हम कुछ रोज़ से रहे थे । हिले हुए विश्वास के साथ देखा तो ये ध्यान आया।
हमारा विश्वास भी कुछ इकदम इसी तरह तो है। विश्वास हिल सकता है, डगमगा सकता है, बिखर सकता है और टूट भी सकता है।शायद कोई उखाड़ के फेक भी दे। पर कभी एकदम जड़ से तो ख़त्म नहीं हो सकता।
हां ये जरूर है कि किसी दरमियान वो न्यूनतम लेवल पर है। पर कितना भी नीचे हो, एक अंश तो रहेगा ही।पूरी तरह से फ़ना होना विश्वास को तो नहीं ही आता। ज़र्रे भर ही रह जाए पर रह जरूर जाता है।
और वही ज़र्रे भर का विश्वास फिर उग जाता उसी पेड़, झाड़ की तरह जो सामने वाले घर में उग आये।
आत्म विश्वास का हिलना लाज़मी है, वक़्त बेवक्त होगा ही। लेकिन खोये गा नहीं. बस थोड़ा सा ओझिल ही होयेगा।जहां सही हवा, फ़िज़ा, पानी मिला वहां फिर दिखने लगेगा, चमकने लगेगा।
मेरे घर के सामने एक घर है और अब उसमे पेड़ भी है!
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