"पेड़-पौधों और नदियों को यदि मानव जीवन का मूल आधार कहा जाए तो शायद इसमें कोई अतिशयोक्ति न हो; पेड़-पौधों से हमें सांस लेने हेतु प्राण वायु, ऊर्जा हेतु भोजन और दैनिक जरूरतों के तमाम उत्पाद प्राप्त होते हैं और नदियों से हमें जल प्राप्त होता है।"
देश की आजादी के बाद उत्तराखंड के बड़े भूभाग में फैला चिपको आंदोलन यहां के समाज की एक ऐसी ही अभिव्यक्ति या शोर था, 70 के दशक में शुरू हुआ यह आंदोलन इस क्षेत्र के निवासियों के जंगलों से दैनिक उपयोग के उत्पादों को लेने की मनाही से शुरू हुआ था ; गोपेश्वर , मंडल , फाटा से फैला यह आंदोलन धीरे-धीरे यहां के जनमानस के बीच बैठ गया , फिर तो जहां-जहां भी लोगों के अधिकारों पर बात आई, वहां-वहां विरोध के स्वर घूमने लगे ।
इस आंदोलन को अंकुरित करने और दिशा देने में चंडी प्रसाद भट्ट , आलम सिंह बिष्ट, गोविंद सिंह रावत , गौरा देवी, सुंदरलाल बहुगुणा, कुंवर प्रसून, विजय गिरधारी , शमशेर सिंह बिष्ट, गिरीश तिवारी गिर्दा और अन्य व्यक्तियों का योगदान रहा ; जब यह आंदोलन जनमानस के भीतर बैठ गया फिर तो समाज का लगभग हर समूह इससे जुड़ने लगा और यहां के जनमानस ने यह साबित कर दिया कि जंगलों के भीतर से यदि मधुर गीत पनप सकते हैं तो गहरे शोर भी निकल सकते हैं।1980 व इसके कुछ समय पश्चात तक चिपको आंदोलन अपने उद्देश्यों तक पहुंचने में लगभग सफल रहा , तत्पश्चात चिपको का ताप पाए अनेक व्यक्तियों ने समाज के अन्य पहलुओं पर विश्लेषणात्मक तरीके से सोचना और रचनात्मक कार्य करना शुरू किया , इनमें से ही एक प्रकार का रचनात्मक कार्य था बीज बचाओ आंदोलन ।
बीज बचाओ आंदोलन चिपको का दूसरा महत्वपूर्ण विस्तार माना जा सकता है , उत्तराखंड के बाकी क्षेत्रों की तरह हेंवल घाटी भी चिपको आंदोलन का एक महत्वपूर्ण स्थल था , यह बाकी जगह से इस मामले में कुछ भिन्न था कि यहां जंगल के साथ-साथ जल का मुद्दा भी गहरा था, जिसके लिए यहां जल सत्याग्रह चलाया गया ।
1980 और इसके कुछ समय बाद जब चिपको को लगभग सफल मान लिया गया और इसके साथ ही चलता हुआ जल सत्याग्रह भी लगभग सफल हो ही चुका था तो धीरे-धीरे समाज के लोगों को जंगलों के खेती से रिश्ते को समझने का मौका मिला ; यही समय था, जब दुनिया भर में बीजों का पेटेंटीकरण हो रहा था और कंपनियों के बीच होड़ लगी हुई थी ;
इसी समय हेंवल घाटी से इस आंदोलन को विजय जरधारी जी ने शुरू किया ;
बीच बचाओ आंदोलन ने पारंपरिक बीजों के संरक्षण और विविधतापूरक भोजन के इसी विचार को आगे बढ़ाया और पारंपरिक बीजों के संरक्षण , उनके प्रचार- प्रसार, हमारे अनाजों की विविधता बढ़ाने और स्वस्थ जीवन के लिए बीज बचाओ आंदोलन आज भी निरंतर जारी हैं ।
हमने बीज बचाओ आंदोलन , आज की भोजन-शैली तथा इसके नुकसान और पारंपरिक खाद्यान्न जैसे कुछ विषयो पर विजय जरधारी जी से बातचीत की और अनेक जानकारियां प्राप्त की ; बातचीत के कई महत्वपूर्ण बिंदुओं को इस संक्षिप्त लेख में समेटने का प्रयास किया गया है।
1. आज की जीवन शैली में शामिल भोजन और उसके दुष्प्रभाव जो सामने आ रहे हैं इसमें पारंपरिक भोजन कैसे बेहतर है?
जिंदा रहने के लिए भोजन तो आवश्यक अंग है , आज खाना तो उपलब्ध है ही लेकिन आने वाले समय की चिंता यह है कि जो खाना आज मिल रहा है और खाने का जो पैटर्न बदला है और पारंपरिक भोजन हमारी थाली से दूर हो गया ;
हम अगर पारंपरिक भोजन की बात करें तो पहले हमारे जो लोग थे उनके भोजन में विविधता थी, उसी के बल पर वे बहुत बलशाली होते थे, पहाड़ में तो आपने सुना ही होगा वीरू भडु कु देश, 52 गढू कु देश ...भड़ बहुत बलशाली होते थे, उनकी ताकत का कारण यह था कि वे यहां की मिट्टी में उपजा विविधतापूर्ण और पारंपरिक भोजन खाते थे; कहते हैं कि वे लोग इतने बलशाली हुआ करते थे कि जितना आज एक जेसीबी वजन उठा लेती है उतना भड़ अकेले उठा लेते थे, इसके किस्से कहानी कई पुस्तकों में लिखे हुए हैं ।
गढ़वाल क्षेत्र 52 गढ़ में विभाजित था, तो गढ़ के लोगों के बैठने के लिए आंगन या चबूतरा बना होता था जहां उनकी संसद या पंचायत बैठती थी तो उसमें आज भी लगे भारी पत्थर देखे जा सकते हैं, इतने भारी कि जिन्हें एक जेसीबी उठा सकती है, वे पत्थर किसी जमाने उन लोगों ने उठाए हैं तो आप सोच सकते हैं कि वे कितने ताकतवर रहे होंगे ।
आज के समय देखा जाए तो आज ऐसी व्यवस्था हो गई है कि पहले तो लोगों को खाने-पीने की ऐसी चीज परोसी जा रही हैं , चाहे वह खाद्यान्न हो या कोई बाहरी खाना हो; पहले लोगों को एक तरह से बीमार किया जा रहा है खाने से , हालांकि दिया तो यही जा रहा है कि पेट भरने के लिए दिया जाता है लेकिन पूरी व्यवस्था को देखेंगे तो पाएंगे कि बीमार करने के लिए भोजन दिया जाता है और उसके बाद फिर इलाज की भी बात होती है , एक प्रकार से पहले कीटनाशक युक्त फसलें खिलाई जाती है और फिर उसका समाधान भी दवाओं के रूप में बताया जाता है ।
2. आपके हिसाब से अभी के युग में भोजन प्रणाली में सुधार क्या-क्या सुझाव होने चाहिए , किस प्रकार की व्यवस्था होनी चाहिए?
पर्यावरण की अगर बात करें तो हम भी उसका हिस्सा हैं , हमारे आसपास जो भी खेती हो रही है , वही हमारे भोजन का असली हिस्सा होना चाहिए , आज की जलवायु की दौड़ में यह भी संभव है कि जो आज के हाइब्रिड बीज आ गए हैं , क्योंकि जिस गति से हम जलवायु परिवर्तन को देख रहे हैं तो कोई भी ऋतु चक्र अपने समय पर नहीं है ; जब गर्मी हो रही है तो अत्यधिक हो रही है , जब बारिश की जरूरत है तो बारिश समय पर नहीं है , जहां बर्फ की जरूरत है वहां बर्फ गिरना लगभग बंद या कम हो गई है ; जिस जगह हमारा घर है यहां एक जगह जमाने में हमारा दो मंजिलों का घर होता था तो यहां बर्फ इतनी पड़ती थी कि निचली मंजिल को खोलना मुश्किल हो जाता था , तब लोग बर्फ का पानी पिघलाते थे और लकड़ी का इंतजाम पहले करते थे ।
अब देखते हैं कि यहां बर्फ नहीं गिरती , तेजी से परिवर्तन हो रहा है जलवायु में ; जब सूखा पड़ रहा है तो इतना पड़ता है कि सारी फसल सूख जा रही है ; तो मैं जो बात कर रहा था हाइब्रिड बीजों की , तो वे ऐसी गर्मी में मुरझा जाते हैं, लेकिन हम देखते हैं कि हमारा झंगोरा, मंडवा , चिणा, कौणी जैसी फसलें तब भी सूखती नहीं थी;
3. यह भी बताइए कि जैसे यह सारी ज़रूरतें हैं और जो यह जलवायु परिवर्तन के बाद भी जी सकते हैं तो आपका किस तरह का प्रयास है और अभी कुछ सालों से आपने कुछ नए बीजों को भी ढूंढा है आप किस तरह से चीजों को बचा रहे हैं ?
मेरा व्यक्तिगत तौर पर तो यह है कि पौधों के पास जाना , नए-नए पौधों को उगाने, खेती को देखने में आनंद आता है तो हम लोगों ने प्रयास किया है कि किसानों को भी पारंपरिक खेती से जोड़ें और पारंपरिक खेती का प्रचार प्रसार हो और खासकर बारहनाजा पर हमारा बहुत ज्यादा ध्यान है , बारहनाजा में जो पैदा होता है , वह विविधता भरी फसलों का मिश्र है ; बारहनाजा यानी यह 12 या 12 से ज्यादा तरह के फसलों की मिश्रित खेती है, इसमें 12 अनाजों के साथ साथ दैनिक आवश्यकता की कुछ अन्य फसलें भी शामिल हैं , इसमें खाद्यान्न भी है , दलहन , तिलहन , सब्जियां और मसाले भी हैं; इसमें स्वयं के लिए खाना, पशु के लिए चारा और इसके अतिरिक्त मिट्टी के लिए पोषण भी है , मिट्टी को उपजाऊ बनाने के लिए जैसे मंडवा, बारहनाजा की मुख्य फसल है, इसके अलावा इसमें चौलाई, कुट्टू और ज्वार भी है।
दलहन में गहत , भट्ट , नौरंगी है और सब्जियों में चौलाई और कुट्टू की सब्जी बहुत पौष्टिक होती हैं ; ये फसलें एक दूसरे की सहयोगी होती हैं उदाहरण के लिए जैसे रामदाना का पौधा जब ऊपर उठता है तो राजमा की बेल उस पर चढ़ती है या गहत, भट्ट और उड़द की बेल लगाई जा सकती है तो जैसे जलवायु परिवर्तन की बात करें , सूखा पड़ गया और दालें कमजोर हो जाएं तो मोटा अनाज मंडवा, ज्वार, चौलाई तो हो ही जाएगी। जिस साल सूखा पड़ा उस साल मंडवा, चौलाई, झंगोरा की फसल बहुत अच्छी हुई ; 1986 में सूखा पड़ा था तब रामदाना की फसल बहुत अच्छी हुई थी, 2009 में धान की फसल पिट गई थी (खराब हो गई थी) पर चौलाई और मंडवा बहुत अच्छा हुआ ; इन फसलों को अगर बढ़ावा दिया जाए तो ये उत्पादन में भी आगे हैं।
इसके अलावा सवाल मिट्टी बचाने का भी है पहाड़ में , क्योंकि मिट्टी लगातार बहकर जा रही है , खासकर पहाड़ से ;
अगर हम गौर करें तो हम पाएंगे कि चिपको आंदोलन से अब तक पहाड़ में हरियाली का क्षेत्रफल घटा है , इसका कारण यह है कि पहले लोग अपने खेतों में 100 - 50 पेड़ तो लगा ही लेते थे, लेकिन अब कोई उन पर ध्यान देने वाला नहीं है , पेड़ पहले चारा, ईंधन, फलदार पेड़ होते थे जो शुद्ध हवा भी देते थे और मिट्टी को भी बांध कर रखते थे , गंगा के पानी पर अब आप गौर करेंगे तो यह उद्गम में ही इतना है जितना केवल एक गाड़ (छोटी नदी) के बराबर है ।
हमारे खेतों , जंगलों का पानी छोटी छोटी नदियों से होते हुए गंगा में गया और यह सब पानी गंगा सागर तक जा रहा है , हम एक प्रकार से पानी भी दे रहे हैं , हवा भी दे रहे हैं , यहां के लोगों ने अनेक कुर्बानियां भी दी , टिहरी बांध बना तो लोग विस्थापित हुए; दिल्ली में बिजली फ्री दी जा रही है , पानी फ्री दिया जा रहा है, यूपी में यहां के पानी से सिंचाई हो रही है और यहां पानी भी इतना महंगा, बिजली भी इतनी महंगी ; कम से कम पहाड़ के लोगों का उसका ग्रीन बोनस मिलना चाहिए ;
लोग इतनी मेहनत करते हैं, आजकल देख रहे होंगे कि जंगलों में आग लगती है , पहले लोग खुद आग बुझाने जाते थे पर सरकार ने जंगलों को अपने अधीन कर लिया तो लोग अब नहीं जाते हैं , सरकार ने अब जंगल का मालिक वन विभाग को बना लिया है तो लोग फ्री में आग को बुझाने नहीं जाते , उन्हें लगता है कि यह काम वन विभाग का है उन्हें इसकी तनख्वाह मिलती है , जंगलों से लोगों का अपनत्व कम हो रहा है , ऐसा होना चाहिए था कि आप जंगल को पाल रहे हैं तो उसके बदले आपको बिजली पानी फ्री न देकर सब्सिडी पर दें; यहां तो पानी को पंप नहीं करना होता , ढलान की वजह से वह अधिकतर जगह खुद ही बहता है , उसके लिए भी लोगों को बिल देना पड़ता है ।
सरकार को यह समझना चाहिए कि गांव वालों को जिम्मेदारी देनी चाहिए, अगर जंगलों को आग से बचाना है हेलीकॉप्टर से जंगलों को हमेशा नहीं बचाया जाता है , यह तो स्थानीय लोगों को पता होता है कि जंगल के पास पानी का धारा कहां है और रास्ता कहां से जाता है , कहां से नीचे ढंगार में चीड़ के फल जो आग लगने में सहायक है तो उनको कैसे हटाया जा सकता है ।
4. आप एक बात और बोल रहे थे जैसे बारहनाजा था तो इसके अलावा किस तरह चीजों को संरक्षित करने में और लोगों को जागरूक करने के लिए आप काम कर रहे हैं?
हम लोगों के दो पक्ष पर बात करते हैं:
1. पहले हमारा खानपान... हमारा खानपान ही हमें स्वस्थ रख सकता है , बीमारियों से बचा सकता है तो इसके लिए हमने अभियान चलाया है कि अपना खान-पान बेहतर हो , एक किताब भी मैंने लिखी है ..पौष्टिक खानपान
2. दूसरा पक्ष यह कि इसमें विविधता की बात मैं कर रहा था, एकल खेती के बजाय विभिन्न फसलों को बोएं तो मिट्टी की उर्वरता रहेगी और मिट्टी यहां बनी भी रहेगी ;
पश्चिमी उत्तर प्रदेश और गंगा जमुना का मैदान मिट्टी से ही है , आप गौर कीजिए कि जिस साल यहां आग लगती है , आप यकीन मानिए कि हजारों लाखों टन मिट्टी बहकर चली जाती है, यह उपजाऊ मिट्टी जो बहकर जाती है , यह मैदान में जा रही है। पहाड़ से मिट्टी बहकर जाती है तो पहाड़ के खेत अनुपजाऊ होते हैं , मिट्टी को बचाने के लिए आपने देखा कि सॉइल (soil) कंजर्वेशन विभाग बना है , लेकिन कहीं भी व्यावहारिक तौर पर आज तक इसका उदाहरण पहाड़ में नहीं है कि मिट्टी को संरक्षित करने के लिए कोई उपाय उन्होंने अपनाया हो ; जबकि मैंने अनुभव किया कि खेतों की मिट्टी जो बहकर जा रही है , जहां पहले हल लगाते समय पत्थर हल के फाल पर लगते थे, कुछ समय बाद वे पत्थर ऊपर आ गए हैं तो इतनी मिट्टी बह चुकी है ; मिट्टी स्लो तरीके के साथ जलीय इरोजन के माध्यम से भी बह रही है ; यदि पहाड़ को जिंदा रखना है तो मिट्टी का संरक्षण पहाड़ के लिए बहुत आवश्यक है और हमारे खेती को खेतों की मिट्टी को बचाने के लिए भी ।
इसके अलावा मैं यह भी मानता हूं कि जहां तक नई पीढ़ी की बात है तो नई पीढ़ी के लिए भी पारंपरिक खेती के साथ इसके गुणवत्ता को बरकरार रखते हुए बागवानी , मधुमक्खी पालन को जिंदा रखते हुए कुछ नया करने का युवाओं में क्रेज होना चाहिए ; अगर एक अभियान यही चलाया जाए कि जैसे हम कहते हैं कि हिमाचल सेब की खेती के लिए प्रसिद्ध है , लेकिन और फसलें जैसे कि अखरोट है , अखरोट पर तो कोई बीमारी नहीं होती है और अखरोट यदि हम कोशिश करें तो पूरा उत्तराखंड बेहतरीन क्वालिटी के अखरोट का सप्लाई पूरे देश और दुनिया को कर सकता है ; उसके लायक क्लाइमेट यहां हर जगह अच्छी है , सेब तो ऊंचाई पर ज्यादा अच्छा होता है ; लेकिन अखरोट हर जगह हो सकता है ।
चूल्हू और खुमानी जो परंपरागत फल हैं , कीवी की भी आज बात हो रही है ; यह भी बेहतरीन है , लेकिन चूल्हू का पेड़ आज दुनिया के सबसे महंगे पेड़ों में से एक है ; लेकिन लोगों का उसे तरफ ध्यान नहीं है , पुराने पेड़ खत्म हो रहे हैं और नए पेड़ लगाने का उत्साह लोगों में दिख नहीं रहा है , उसके लिए भी अभियान चलाए जाने की जरूरत है ।
हमारे यहां बड़ी मात्रा में जंगली फल होते हैं , जैसे कि मेहल या म्योल , उसके पेड़ यहां बहुत ज्यादा हैं, वह कांटेदार होता है उससे नाशपाती की कलम बहुत बढ़िया लगती हैं , तो ये सब यहां बहुत बढ़िया हो सकती है तो यदि पारंपरिक खेती और बागवानी में देसी फसल आ रहे हैं तो वे भी उगाए जा सकते हैं लेकिन यह न हो कि एक ही फसल बोई जाए और खाने के लिए न हो ; खाने के लिए जो इस क्लाइमेट में पैदा होता है, वह जरूर बोना चाहिए ।
5. इसके अतिरिक्त पहाड़ में कृषि और अन्य से जुड़े स्वरोजगार के क्या क्या कार्य हो सकते हैं?
जैसे मधुमक्खी पालन की बात करें , तो मैं मानता हूं कि उत्तराखंड में उच्च क्वालिटी का शहद हो सकता है , उच्च क्वालिटी का शहद बहुत कम ही मिलता है ;
लेकिन उत्तराखंड और हिमाचल में भी इसे उत्पादित करने संभावना हो सकती है , यहां जो सफेद शहद होता है , यह सफेद शहद 4000 से ₹5000 रुपए किलो में बिकता है , यहां यह बहुत अच्छा हो सकता है ।
जब पूरे हिमालयी क्षेत्र में फूल खत्म हो जाते हैं तब नवंबर दिसंबर में पय्यां/ पदम के पेड़ों पर फूल आते हैं और उस दौरान जो शहद होता है , वही व्हाइट हनी या सफेद शहद के रूप में जाना जाता है ;
हमारे यहां शहद दो सीजन में निकाला जाता है , एक कार्तिक में और दूसरा चैत्र में , तो दिसंबर जनवरी के महीने जब सारे फूल खत्म हो जाते हैं और उसके बाद पदम के फूलों से बना हुआ शहद निकाला जाए , यह सबसे महंगे शहद में से एक है ; मधुमक्खियां पालने का जो ट्रेडिशनल तरीका है उसके साथ जो नए तरीके आ रहे हैं वे भी यहां पर मधुमक्खी पालन के लिए उपयोग किए जा सकते हैं।
बहुत सारी चीज हैं करने के लिए, इन सबके लिए एक चीज जरूरत है , जो लोग ट्रेडिशनल / नेचुरल / प्राकृतिक उपजा रहे हैं , उनके लिए विशिष्ट मार्केट की जरूरत होगी, क्योंकि अभी अगर कोई पैदा कर भी रहे हैं तो एक केमिकल वाला उत्पाद भी उसी बाजार में जा रहा है और जैविक उत्पाद भी ;
सब्जी पैदा कर रहे हैं तो ऑफ सीजन में जो आ रहा है उसी के साथ यहां का जैविक उत्पाद भी बिक रहा है ; पहाड़ के जैविक उत्पादों का ब्रांड हो तो यहां के किसानों और युवाओं को रोजगार का अच्छा माध्यम भी मिल सकता है और लोगों की सेहत भी बेहतर हो सकती है ।
दालों की विविधता की बात जो हम कर रहे हैं तो मुझे लगता है कि आज के जमाने में शाकाहार की भी जरूरत होगी , प्रोटीन के लोग सिर्फ मांस के बारे में सोचते हैं , मांस को ही परोसते हैं ; अब मशरूम का भी प्रचलन हो रहा है लेकिन जो यहां की उच्च कोटि की दालें हैं जैसे राजमा , विशेष रूप से हर्षिल, जोशीमठ, मुनस्यारी की राजमा (इनकी काफी पहचान है) तो राजमा की बात करें तो हमारे यहां 220 प्रकार की राजमा होती है ; एक नौरंगी दाल होती है उसका नाम ही लोगों ने नौरंगी इसलिए रखा होगा क्योंकि उसमें नौ रंग लोगों ने पहचाने होंगे लेकिन मैंने खुद अपने प्रयोग के दौरान 25 से 30 प्रकार के रंग और विभिन्न आकार की विविधता उस दाल में देखी , वह भी बहुत गहन दर्जे की दाल मानी गई है; यदि उसके पोषण का एनालिसिस करें तो वह मूंग के बराबर है , वह प्रोटीन का अच्छा स्रोत है; गरीब लोग और क्या खा सकते हैं .? नवरंगी उनके पास एक ऑप्शन है , जिससे वे स्वस्थ रह सकते हैं तो दालों का भी एक बड़ा ब्रांड हो सकता है पहाड़ों के द्वारा , जो पहचान बन सकता है और लोगों को स्वस्थ भी रख सकता है ।
इसके अतिरिक्त अगर अनाजों में देखा जाए तो मंडवा के अलावा कौणी और चिणा भी बहुत ज्यादा हो सकता है , चिणा तो 60 से 80 दिन के भीतर पैदा हो जाता है ; पहले लोग गेहूं की कटाई के बाद के कुछ महीनो अपने खेतों में चिणा बो देते थे और जब चिणा हो जाता था , उसके बाद धान रोपा जाता था ; 70 दिन के आसपास भी चिणा हो जाता है , इसकी फसल बहुत बढ़िया होती है , पशु के लिए मुलायम चारा भी इससे मिलता है तो चिणा, कौणी , झंगोरा ये पहाड़ों की एक तरह से पोषण फसलें थी ।
बीज बचाओ आंदोलन ने जब 80 के दशक के उत्तरार्ध में आंदोलन शुरू किया तो हम लोगों ने लगातार इन्हीं फसलों पर मुख्य फोकस रखा कि मंडवा, झंगोरा को उसका असली सम्मान दिलाना है और बारहनाजा को लाना है भोजन पद्धति में ; जब हम ये बातें करते थे तो वैज्ञानिक लोग भी हंसते थे और जो योजनाकार है वे भी हंसते थे ; बोलते होंगे कि ये लोग या तो पागल हो गए हैं या विकास विरोधी हैं जो लोगों को अच्छा खाना नहीं खाने देना चाहते और ये लोग कोदा झंगोरा की बात कर रहे हैं ; लेकिन हम कहते थे कि यह पौष्टिक फसले हैं , इन्हें मोटा अनाज नहीं कहा जाना चाहिए इन्हें पौष्टिक फसल माना जाना चाहिए ; बाद में सरकार ने इस बातों को माना और आज मिलेट के रूप में उसका सम्मान किया जाता है ।
यूं तो विजय जड़धारी जी इंदिरा गांधी पर्यावरण पुरस्कार 2009 , संस्कृति पुरस्कार 1998 सहित अन्य दर्जनों पुरस्कारों से सम्मानित हैं लेकिन जिस उद्देश्य के साथ यह आंदोलन प्रारंभ किया गया है और वे इस उम्र में भी जागरूकता के लिए कार्य कर रहे हैं, अगर हम मिलकर पारम्परिक बीजों के संरक्षण और संवर्धन हेतु जमीनी स्तर पर बेहतरीन कार्य कर पाते हैं तो ऐसी महान विभूति के उद्देश्यों की प्राप्ति में इससे बढ़कर पुरस्कार शायद ही कुछ और हो।
तेजी से दौड़ते समय चक्र में यदि हम अपनी पारंपरिक फसलों, बीजों के बारे में जागरूक न हुए तो वह समय भी दूर नहीं जब यह सब अतीत की बात हो जाएगी और भोजन के लिए पूरी मानव जाति की निर्भरता बाजार पर ही 100 प्रतिशत हो जाएगी , जिसका परिणाम तमाम सारी बीमारियों के रूप में हमारे सामने होगा; अतः यह जरूरी है कि बीज बचाओ आंदोलन जैसे आंदोलनों के उद्देश्यों को आम जनों के बीच प्रचारित किया जाए और सभी जन मिलकर इनके उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए एकजुट होकर कार्य करें ।
Very insightful and much important :)
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